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कविता

दुनिया के सारे कुएँ

नरेश अग्रवाल


मँडरा रहा है यह सूरज
अपना प्रबल प्रकाश लिए
मेरे घर के चारों ओर
उसके प्रवेश के लिए
काफी है एक छोटा सा सूराख ही
और जिंदगी
जो भी अर्जित किया है मैंने
उसे बाहर निकाल देने के लिए
काफी होगा एक सूराख ही
और प्रशंसनीय है यह तालाब
मिट्टी में बने हजार छिद्रों के बावजूद
बचाए रखता है अपनी अस्मिता
और वंदनीय हो तुम दुनिया के सारे कुओं
पाताल से भी खींचकर सारा जल
बुझा देते हो प्यास हर प्राणी की।


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